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ख़ाक उगाती हैं सूरतें क्या क्या | शाही शायरी
KHak ugati hain suraten kya kya

ग़ज़ल

ख़ाक उगाती हैं सूरतें क्या क्या

नज़ीर क़ैसर

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ख़ाक उगाती हैं सूरतें क्या क्या
आइनों में हैं हैरतें क्या क्या

उम्र के बे-सबात सफ़्हों पर
लिख रहा हूँ इबारतें क्या क्या

खुलते जाते हैं बाब-ए-हर्फ़-ओ-सदा
हो रही हैं ज़ियारतें क्या क्या

मुड़ के देखूँ तो नक़्श-ए-पा की तरह
हम-सफ़र हैं रिवायतें क्या क्या

लफ़्ज़ आवाज़ और साए में
ढूँढता हूँ शबाहतें क्या क्या

ख़्वाब से पैकर-ए-मआनी तक
रूनुमा हैं अलामतें क्या क्या

रंग लाई है हसरत-ए-तामीर
गिर रही हैं इमारतें क्या क्या

आदमी मर्सियों की सूरत में
लिख रहा है बशारतें क्या क्या