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ख़ाक उड़ती है ख़रीदार कहाँ खो गए हैं | शाही शायरी
KHak uDti hai KHaridar kahan kho gae hain

ग़ज़ल

ख़ाक उड़ती है ख़रीदार कहाँ खो गए हैं

सुल्तान अख़्तर

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ख़ाक उड़ती है ख़रीदार कहाँ खो गए हैं
जिन से थी रौनक़-ए-बाज़ार कहाँ खो गए हैं

सब की पेशानियाँ सज्दों से मुनव्वर हैं यहाँ
ऐ ख़ुदा तेरे गुनहगार कहाँ खो गए हैं

सर-निगूँ बैठे हैं सब ज़िल्ल-ए-इलाही के हुज़ूर
क्या हुए साहिब-ए-दस्तार कहाँ खो गए हैं

जिन के दामन में दुआओं के ख़ज़ाने थे बहुत
वो सख़ावत के अलम-दार कहाँ खो गए हैं

ऐसा एहसास-ए-ज़ियाँ तो कभी गुज़रा ही न था
दोस्त क्या हुए अग़्यार कहाँ खो गए हैं

ढूँढती फिरती है पागल की तरह शाम-ए-अवध
लखनऊ तेरे तरहदार कहाँ खो गए हैं

ख़ाना-ए-जाँ में अँधेरा ही अँधेरा है तमाम
वो फ़रोज़ाँ दर-ओ-दीवार कहाँ खो गए हैं

मंज़िलें जिन की क़दम-बोसी पे नाज़ाँ थीं बहुत
वो जरी क़ाफ़िला-सालार कहाँ खो गए हैं

ढूँडता फिरता हूँ दरवेश ओ क़लंदर 'अख़्तर'
सब के सब आईना-किरदार कहाँ खो गए हैं