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ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है | शाही शायरी
KHak uDate hue ye marka sar karna hai

ग़ज़ल

ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है

अज़्म शाकरी

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ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है
इक न इक दिन हमें इस दश्त को घर करना है

ये जो दीवार अँधेरों ने उठा रक्खी है
मेरा मक़्सद इसी दीवार में दर करना है

इस लिए सींचता रहता हूँ मैं अश्कों से उसे
ग़म के पौदे को किसी रोज़ शजर करना है

तेरी यादों का सहारा भी नहीं है मंज़ूर
उम्र भर हम को अकेले ही सफ़र करना है