ख़ाक से उठना ख़ाक में सोना ख़ाक को बंदा भूल गया 
दुनिया के दस्तूर निराले आप से रिश्ता भूल गया 
जंगल जंगल जोग में तेरे फिरते हैं इक रोग लिए 
तिरे मिलन की आस जगी है दश्त का रस्ता भूल गया 
एक मोहब्बत रास है दिल को एक वफ़ा अनमोल सनम 
भेस फ़क़ीरों वाला भर के ज़ात का सहरा भूल गया 
ख़्वाब में जब से देखा उस को चैन नहीं है आँखों में 
सारी रात मुसलसल काटी ख़्वाब का रस्ता भूल गया 
शाम ढले इक पहला तारा हम से मिलने आया था 
दूर बिदेस में रहने वाला अपना पराया भूल गया 
हर धड़कन से प्यार का अमृत हर इक लफ़्ज़ में उतरा था 
सारी उम्र जो लिक्खा दिल ने वही वज़ीफ़ा भूल गया 
माला जपते जपते गुज़री उम्र किसी सन्यासी की 
मंज़िल पास जो आ पहुँची तो इश्क़ सहीफ़ा भूल गया
        ग़ज़ल
ख़ाक से उठना ख़ाक में सोना ख़ाक को बंदा भूल गया
शाइस्ता मुफ़्ती

