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ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो | शाही शायरी
KHak mein milti hain kaise bastiyan malum ho

ग़ज़ल

ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो

सग़ीर मलाल

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ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो
आने वालों को हमारी दास्ताँ मालूम हो

जो इधर का अब नहीं है वो किधर का हो गया
जो यहाँ मादूम हो जाए कहाँ मालूम हो

मरहला तस्ख़ीर करने का इसे आसान है
गर तुझे अपना बदन सारा जहाँ मालूम हो

जो अलग हो कर चले सब घूमते हैं उस के गिर्द
यूँ जुदा हो कर गुज़र कि दरमियाँ मालूम हो

कितनी मजबूरी है ला-महदूद और महदूद की
बे-कराँ जब हो सकें तब बे-कराँ मालूम हो

एक दम हो रौशनी तो क्या नज़र आए 'मलाल'
क्या समझ पाऊँ जो सब कुछ ना-गहाँ मालूम हो