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ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम | शाही शायरी
KHak kar Dalen abhi chahen to mai-KHane ko hum

ग़ज़ल

ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम
एक साग़र को भरो तुम एक पैमाने को हम

मुझ से हम-आग़ोश हो कर यूँ कहा और सच कहा
होशियार इस तरह कर देते हैं दीवाने को हम

नज़'अ में आए हैं सद अफ़सोस जीते-जी न आए
वो हैं आने को तो अब तय्यार हैं जाने को हम

बे-नतीजा उन पे मरना याद आता है हमें
शम्अ पर जब देखते हैं मरते परवाने को हम

कोहकन और क़ैस की क़ब्रों से आती है सदा
क्या मुकम्मल कर गए उल्फ़त के अफ़्साने को हम

एक पत्ता भी नहीं हिलता ब-जुज़ हुक्म-ए-ख़ुदा
किस तरह आबाद कर लें अपने वीराने को हम

एक दिन ये है कि हैं इक शम्अ-रू पर ख़ुद निसार
एक दिन वो था बुरा कहते थे परवाने को हम

अबरुओं ने सच कहा उस के इशारे की है देर
देखते बिल्कुल नहीं फिर अपने बेगाने को हम

जान जाए या रहे उस को सुनाएँगे ज़रूर
क़ैस के पर्दा में 'परवीं' अपने अफ़्साने को हम