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ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा | शाही शायरी
KHak hoti hui hasti se uTha

ग़ज़ल

ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा

तौक़ीर तक़ी

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ख़ाक होती हुई हस्ती से उठा
इश्क़ का बोझ भी मिट्टी से उठा

हिज्र था बार-ए-अमानत की तरह
सो ये ग़म आख़िरी हिचकी से उठा

लौ तिरे ब'अद बढ़ी अश्कों की
शोला-ए-इश्क़ भी पानी से उठा

दिल ने आबाद किया इश्क़-आबाद
ख़ाक हो कर उसी बस्ती से उठा

दिल उसी दर्द की ज़ुल्फ़ों का असीर
हाए वो दर्द जो पस्ली से उठा

या मुझे क़ैद-ए-अनासिर से निकाल
या मिरी ख़ाक को पस्ती से उठा

आख़िरी वक़्त में हर रंज का बोझ
ख़म-शुदा रीढ़ की हड्डी से उठा

इस से पहले कि मिरा नाम आ जाए
मुझे इस डोलती कश्ती से उठा