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ख़ाक-ए-दिल कहकशाँ से मिलती है | शाही शायरी
KHak-e-dil kahkashan se milti hai

ग़ज़ल

ख़ाक-ए-दिल कहकशाँ से मिलती है

शाहीन ग़ाज़ीपुरी

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ख़ाक-ए-दिल कहकशाँ से मिलती है
ये ज़मीं आसमाँ से मिलती है

हाथ आती नहीं कभी दुनिया
और कभी हर दुकाँ से मिलती है

हम को अक्सर गुनाह की तौफ़ीक़
हुज्जत-ए-क़ुदसियाँ से मिलती है

दिल को ईमान जानने वाले
दौलत-ए-दिल कहाँ से मिलती है

मावारा-ए-सुख़न है जो तौक़ीर
इक कड़े इम्तिहाँ से मिलती है

इंतिहा ये कि मेरी हद्द-ए-सफ़र
मंज़िल-ए-गुमरहाँ से मिलती है

हर सितारा लहूलुहान मिरा
ये जबीं आसमाँ से मिलती है

कुंज-ए-गुल की ख़बर दरीचे को
अब तो बाद-ए-ख़िज़ाँ से मिलती है

सहल 'शाहीन' ये हुनर तो नहीं
शाइरी नक़्द-ए-जाँ से मिलती है