ख़ाक-ए-अग़्यार से यारब मुझे पैवंद न कर
मुझ को इन चाँद सितारों में नज़र-बंद न कर
एक ही बार छलक जाने दे पैमाना मिरा
लम्हा लम्हा मुझे आज़ुर्दा-ओ-ख़ुरसंद न कर
तुझ को पहचान लें या तुझ को ख़ुदा कह बैठें
अपने दीवानों को इतना भी ख़िरद-मंद न कर
शहर-ए-दिल्ली तो अमानत है मिरे पुरखों की
इस को बे-रंग-ओ-सदा मिस्ल-ए-समरक़ंद न कर
वाहिमा हो तो कभी हर्फ़-ए-यक़ीं तक पहुँचे
कुछ न हो जब तो हिकायात क़लम-बंद न कर
इश्क़ आसाँ है मगर रोग है दीवानों का
बार-ए-ग़म यूँही बहुत है उसे दो-चंद न कर
क्या ख़बर कब ये उतर जाए रगों में 'नामी'
ज़हर को ज़हर ही रहने दे इसे क़ंद न कर
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ग़ज़ल
ख़ाक-ए-अग़्यार से यारब मुझे पैवंद न कर
नामी अंसारी