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ख़ाक आईना दिखाती है कि पहचान में आ | शाही शायरी
KHak aaina dikhati hai ki pahchan mein aa

ग़ज़ल

ख़ाक आईना दिखाती है कि पहचान में आ

ज़ेब ग़ौरी

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ख़ाक आईना दिखाती है कि पहचान में आ
अक्स-ए-नायाब मिरे दीदा-ए-हैरान में आ

है शरारा हवस-आमादा-ए-परवाज़ बहुत
यम-ए-ज़ुल्मात बुलाता है कि तूफ़ान में आ

जगमगाता हुआ ख़ंजर मिरे सीने में उतार
रौशनी ले के कभी ख़ाना-ए-वीरान में आ

इस तरह छुप कि कोई ढूँढ निकाले तुझ को
आसमानों से उतर कर हद-ए-इमकान में आ

बैठ जा अपने कटे सर को लिए हाथों में
थक गया मैं भी यहाँ गंज-ए-शहीदान में आ

रमना ख़ाली रम-ए-आहू-ए-मआनी से हुआ
छुप के बैठा ही था मैं 'ज़ेब' नियस्तान में आ