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कौन ये रौशनी को समझाए | शाही शायरी
kaun ye raushni ko samjhae

ग़ज़ल

कौन ये रौशनी को समझाए

वजद चुगताई

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कौन ये रौशनी को समझाए
साथ देते नहीं कभी साए

राज़ खुल जाए फिर वो राज़ कहाँ
बात ही क्या जो लब पे आ जाए

घर हमेशा ही बे-चराग़ रहा
दाग़ सीने के लौ न दे पाए

चाँदनी खल रही है उन की तरह
गुज़रे लम्हात कितने याद आए

तिरे कूचे में सुब्ह-दम अक्सर
देख कर फूल हम को शरमाए

धूप में मेरे साथ चलते हैं
उन की पलकों के दिल-नशीं साए

हम सुकूँ की तलाश में आख़िर
तेरे कूचे में फिर चले आए

रोज़ जाता हूँ मय-कदे की तरफ़
काश ये दिल कभी बहल जाए

अब ख़राबात में वो रिंद कहाँ
शब गए सुब्ह की ख़बर लाए

बू-ए-मय से महक रहा है दिमाग़
बू-ए-गुल की हवस निकल जाए

मय-कदा वक़्त ही पे खुलता है
'वज्द' बे-वक़्त क्यूँ चले आए