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कौन याँ बाज़ार-ए-ख़ूबी में तिरा हम-संग है | शाही शायरी
kaun yan bazar-e-KHubi mein tera ham-sang hai

ग़ज़ल

कौन याँ बाज़ार-ए-ख़ूबी में तिरा हम-संग है

मीर मोहम्मदी बेदार

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कौन याँ बाज़ार-ए-ख़ूबी में तिरा हम-संग है
हुस्न के मीज़ाँ में तेरे महर-ओ-मह पासंग है

मैं वो हूँ दीवाना-ए-सरख़ील-ए-अरबाब-ए-जुनूँ
हाथ में पत्थर लिए हर तिफ़्ल मेरे संग है

जा-ए-तकिया आशिक़-ए-बे-ख़ानुमाँ को वक़्त-ए-ख़्वाब
ज़ेर-ए-सर कूचे में तेरे ख़िश्त है पासंग है

इस जवाहर-पोश के देखे हैं वो याक़ूत-ए-लब
जिस की रंगीनी के आगे लअ'ल भी इक संग है

सुरमई आँखों का तेरे जो कोई बीमार हो
एक मील उस के तईं रखना क़दम फ़रसंग है

जल गया तन्हा न कोह-ए-तूर ही परवाना-वार
आग तेरे इश्क़ की शम-ए-दिल-ए-हर-संग है

सख़्त-जानी मेरी और ज़ालिम तिरे संगीं-दिली
आह मिस्ल-ए-आसिया ये संग ऊपर संग है

बाप का है फ़ख़्र वो बेटा कि रखता हो कमाल
देख आईने को फ़रज़ंद-ए-रशीद-ए-संग है

सर मिरा तेरे क़दम के साथ यूँ है पेश-रौ
ठोकरों में जिस तरह से रह-गुज़र का संग है

ए'तिक़ाद-ए-मोमिन-ओ-काफ़िर है रहबर वर्ना फिर
कुछ नहीं दैर-ओ-हरम में ख़ाक है पासंग है

ये सदा घर घर करे है आसिया फिर फिर मुदाम
मुश्त-ए-गंदुम के लिए छानी के उपर संग है

शैख़ की मस्जिद से ऐ 'बेदार' क्या है तुझ को काम
सज्दा-गह अपना सनम के आस्ताँ का संग है