कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है
घर का घर ही जहाँ बाज़ार में आ सकता है
किस लिए ख़ुद को समझता है वो पत्थर की लकीर
उस का इंकार भी इक़रार में आ सकता है
मुझ को मालूम है दरियाओं का कफ़ है तुझ में
तू मिरे मौजा-ए-पिंदार में आ सकता है
ऐ हवा की तरह अठखेलियाँ करने वाले
बल कभी वक़्त की रफ़्तार में आ सकता है
सर पे सूरज है तो फिर छाँव से महज़ूज़ न हो
धूप का रंग भी दीवार में आ सकता है
ये जो मैं अपने तईं शाएरी करता हूँ 'अज़ीम'
क्या तख़य्युल मिरा इज़हार में आ सकता है
ग़ज़ल
कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है
अज़ीम हैदर सय्यद