EN اردو
कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है | शाही शायरी
kaun wan jubba-o-dastar mein aa sakta hai

ग़ज़ल

कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है

अज़ीम हैदर सय्यद

;

कौन वाँ जुब्बा-ओ-दस्तार में आ सकता है
घर का घर ही जहाँ बाज़ार में आ सकता है

किस लिए ख़ुद को समझता है वो पत्थर की लकीर
उस का इंकार भी इक़रार में आ सकता है

मुझ को मालूम है दरियाओं का कफ़ है तुझ में
तू मिरे मौजा-ए-पिंदार में आ सकता है

ऐ हवा की तरह अठखेलियाँ करने वाले
बल कभी वक़्त की रफ़्तार में आ सकता है

सर पे सूरज है तो फिर छाँव से महज़ूज़ न हो
धूप का रंग भी दीवार में आ सकता है

ये जो मैं अपने तईं शाएरी करता हूँ 'अज़ीम'
क्या तख़य्युल मिरा इज़हार में आ सकता है