कौन सी शाख़ का पत्ता था हरा भूल गया
पेड़ से टूट के मैं अपना पता भूल गया
मैं कोई वादा-फ़रामोश नहीं हूँ फिर भी
मुझ पे इल्ज़ाम है मैं अपना कहा भूल गया
अपने बच्चों के खिलौने तो उसे याद रहे
घर में बीमार पड़ी माँ की दवा भूल गया
कर तो दीं मैं ने चराग़ों की क़तारें रौशन
है ज़माने की मगर तेज़ हवा भूल गया
ख़ौफ़-ए-दोज़ख़ से डराता रहा वाइ'ज़ मुझ को
और ख़ुद अपने गुनाहों कि सज़ा भूल गया
तुझ से कुछ काम था लेकिन तिरे घर के आगे
अब खड़ा सोच रहा हूँ की मैं क्या भूल गया
बे-ख़ुदी हद से जो गुज़री तो मैं इक रोज़ 'नफ़स'
घर से क्या निकला कि फिर घर पता का भूल गया
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ग़ज़ल
कौन सी शाख़ का पत्ता था हरा भूल गया
नफ़स अम्बालवी