कौन पहचाने मुझे शब भर तो ख़तरों में रहा
वो अँधेरा हूँ जो दिन भर बंद कमरों में रहा
सब की नज़रें रोज़ पड़ती थीं कोई पढ़ता न था
मैं तो हर अख़बार की गुमनाम ख़बरों में रहा
मैं ने दुनिया छोड़ दी लेकिन मिरा मुर्दा बदन
एक उलझन की तरह क़ातिल की नज़रों में रहा
आज का इंसान चादर ओढ़ कर एहसास की
ज़िंदगी के शहर में जी कर भी क़ब्रों में रहा
वक़्त ने क़तरों को समझा है समुंदर की तरह
जो समुंदर था हमेशा चंद क़तरों में रहा
जिस को बख़्शा है ख़ुदा ने फ़िक्र का जज़्बा 'नज़ीर'
वो पुरानी और नई सारी ही क़द्रों में रहा
ग़ज़ल
कौन पहचाने मुझे शब भर तो ख़तरों में रहा
नज़ीर बाक़री