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कौन कहता है सर-ए-अर्श-ए-बरीं रहता है | शाही शायरी
kaun kahta hai sar-e-arsh-e-barin rahta hai

ग़ज़ल

कौन कहता है सर-ए-अर्श-ए-बरीं रहता है

अमीर अहमद ख़ुसरव

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कौन कहता है सर-ए-अर्श-ए-बरीं रहता है
वो तो इक दर्द है जो दिल के क़रीं रहता है

चाँद पर अपने क़दम आप ने क्यूँ रोक लिए
एक गाम और कि सूरज भी यहीं रहता है

शम्अ' की तरह पिघलता हूँ मैं लम्हा लम्हा
मेरे एहसास में इक शो'ला-जबीं रहता है

दिल के दरवाज़े पे अब किस को सदा देते हो
मुद्दतें गुज़रीं यहाँ कोई नहीं रहता है

वो जो सूरज को हथेली पे लिए फिरता था
उन्हीं तारीक सी गलियों में कहीं रहता है

जिन फ़ज़ाओं में तमन्नाओं का दम घटता है
हाँ मिरे दौर का फ़नकार वहीं रहता है

जाने ये शौक़ की है कौन सी मंज़िल 'ख़ुसरव'
मैं कहीं रहता हूँ दिल मेरा कहीं रहता है