कौन 'आजिज़' सिला-ए-तिश्ना-दहानी माँगे
ये जहाँ आग उसे देता है जो पानी माँगे
दिल भी गर्दन भी हथेली पे लिए फिरता हूँ
जाने कब किस का लहू तेरी जवानी माँगे
तोड़िए मस्लहत-ए-वक़्त की दीवारों को
राह जिस वक़्त तबीअ'त की रवानी माँगे
माँगना जुर्म है फ़नकार से तरतीब-ए-ख़याल
गेसू-ए-वक़्त जब आशुफ़्ता-बयानी माँगे
साक़ी तू चाहे तो वो दौर भी आ सकता है
कि मिले जाम-ए-शराब उस को जो पानी माँगे
किस का सीना है जो ज़ख़्मों से नहीं है मा'मूर
क्या कोई तुझ से मोहब्बत की निशानी माँगे
दिल तो दे ही चुका अब है ये इरादा अपना
जान भी दे दूँ जो वो दुश्मन-ए-जानी माँगे
हैं मिरे शीशा-ए-सहबा-ए-सुख़न में दोनों
नई माँगे कोई मुझ से कि पुरानी माँगे
ग़ज़ल
कौन 'आजिज़' सिला-ए-तिश्ना-दहानी माँगे
कलीम आजिज़