कटा न कोह-ए-अलम हम से कोहकन की तरह
बदल सका न ज़माना तिरे चलन की तरह
हज़ार बार किया ख़ून-ए-आरज़ू हम ने
जबीन-ए-दहर पे फिर भी रहे शिकन की तरह
सवाद-ए-शब की ये तन्हाइयाँ भी डसती हैं
ये चाँदनी भी नज़र आती है कफ़न की तरह
तमाम शहर है बेगाना लोग ना-मानूस
वतन में अपने हैं हम एक बे-वतन की तरह
ख़याल-ए-दोस्त न हसरत न आरज़ू न उम्मीद
ये दिल है अब किसी उजड़े हुए चमन की तरह
सुकून-ए-क़ल्ब तो किया है क़रार-ए-जाँ भी लुटा
तुम्हारी याद भी आई तो राहज़न की तरह
अजब नहीं कि सर-ए-शहर-ए-आरज़ू 'नादिर'
हमारा दिल भी जले शम-ए-अंजुमन की तरह
ग़ज़ल
कटा न कोह-ए-अलम हम से कोहकन की तरह
अतहर नादिर