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कटा न कोह-ए-अलम हम से कोहकन की तरह | शाही शायरी
kaTa na koh-e-alam humse kohkan ki tarah

ग़ज़ल

कटा न कोह-ए-अलम हम से कोहकन की तरह

अतहर नादिर

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कटा न कोह-ए-अलम हम से कोहकन की तरह
बदल सका न ज़माना तिरे चलन की तरह

हज़ार बार किया ख़ून-ए-आरज़ू हम ने
जबीन-ए-दहर पे फिर भी रहे शिकन की तरह

सवाद-ए-शब की ये तन्हाइयाँ भी डसती हैं
ये चाँदनी भी नज़र आती है कफ़न की तरह

तमाम शहर है बेगाना लोग ना-मानूस
वतन में अपने हैं हम एक बे-वतन की तरह

ख़याल-ए-दोस्त न हसरत न आरज़ू न उम्मीद
ये दिल है अब किसी उजड़े हुए चमन की तरह

सुकून-ए-क़ल्ब तो किया है क़रार-ए-जाँ भी लुटा
तुम्हारी याद भी आई तो राहज़न की तरह

अजब नहीं कि सर-ए-शहर-ए-आरज़ू 'नादिर'
हमारा दिल भी जले शम-ए-अंजुमन की तरह