कट गई उम्र यही एक तमन्ना करते
सामने बैठ के हम आप को देखा करते
ऐ जुनूँ देख चले जाते हैं सहरा की तरफ़
अक़्ल कहती तो अभी बैठ के सोचा करते
याद आ आ के कोई ज़ख़्म लगा जाता है
वर्ना इस कूचे से हम रोज़ ही गुज़रा करते
सर पे है ग़म की कड़ी धूप कहाँ हैं अहबाब
काश दो बोल से हमदर्दी के साया करते
वज्ह-ए-तसकीन-ए-दिल-ओ-राहत-ए-जाँ कुछ भी नहीं
ज़िंदगी तेरे लिए किस का बहाना करते
वक़्त साए की तरह भाग रहा है यारो
उम्र गुज़री है इसी तरह से पीछा करते
'बर्क़'-साहब ने न देखा तुझे ऐ बर्क़-जमाल
शहर में जा के तिरे हुस्न का चर्चा करते
ग़ज़ल
कट गई उम्र यही एक तमन्ना करते
तल्हा रिज़वी बारक़