कट गई रात सुब्ह होती है
सुन मिरी बात सुब्ह होती है
बातों ही में गुज़र गई शब-ए-वस्ल
अब कहाँ रात सुब्ह होती है
अब भी सूरा कि बज रहा है गजर
अरे बद-ज़ात सुब्ह होती है
रात जब जा चुकी तो कहते हो
अब कहाँ घात सुब्ह होती है
अब कहाँ है शब-ए-शबाब ऐ 'मेहर'
जागो हैहात सुब्ह होती है
ग़ज़ल
कट गई रात सुब्ह होती है
सय्यद अाग़ा अली महर