कश्ती-ए-मय को तसव्वुर में रवाँ रखते हैं
जेब ख़ाली है मगर दिल तो जवाँ रखते हैं
हम कि महरूम हैं दीदार-ए-ख़ुदावंदी से
चश्म-ए-ज़ाहिर तो ब-हर-सू निगराँ रखते हैं
ख़ानक़ाहों से तअ'ल्लुक़ है न दरबारों से
निस्बत-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ रखते हैं
झुक ही जाता है फ़लक आँख जहाँ पड़ती है
चूम लेती है ज़मीं पाँव जहाँ रखते हैं
हम से आबाद है मय-ख़ाना-ए-हस्ती या'नी
दिल को रखते हैं सुबुक-सर को गराँ रखते हैं
ग़ज़ल
कश्ती-ए-मय को तसव्वुर में रवाँ रखते हैं
ख़ुर्शीदुल इस्लाम

