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कश्ती-ए-मय को तसव्वुर में रवाँ रखते हैं | शाही शायरी
kashti-e-mai ko tasawwur mein rawan rakhte hain

ग़ज़ल

कश्ती-ए-मय को तसव्वुर में रवाँ रखते हैं

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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कश्ती-ए-मय को तसव्वुर में रवाँ रखते हैं
जेब ख़ाली है मगर दिल तो जवाँ रखते हैं

हम कि महरूम हैं दीदार-ए-ख़ुदावंदी से
चश्म-ए-ज़ाहिर तो ब-हर-सू निगराँ रखते हैं

ख़ानक़ाहों से तअ'ल्लुक़ है न दरबारों से
निस्बत-ए-सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ रखते हैं

झुक ही जाता है फ़लक आँख जहाँ पड़ती है
चूम लेती है ज़मीं पाँव जहाँ रखते हैं

हम से आबाद है मय-ख़ाना-ए-हस्ती या'नी
दिल को रखते हैं सुबुक-सर को गराँ रखते हैं