कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
और डूबने वालों का जज़्बा भी नहीं बदला
तस्वीर नहीं बदली शीशा भी नहीं बदला
नज़रें भी सलामत हैं चेहरा भी नहीं बदला
है शौक़-ए-सफ़र ऐसा इक उम्र से यारों ने
मंज़िल भी नहीं पाई रस्ता भी नहीं बदला
बेकार गया बन में सोना मिरा सदियों का
इस शहर में तो अब तक सिक्का भी नहीं बदला
बे-सम्त हवाओं ने हर लहर से साज़िश की
ख़्वाबों के जज़ीरे का नक़्शा भी नहीं बदला
ग़ज़ल
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर