कसक पुराने ज़माने की साथ लाया है
तिरा ख़याल कि बरसों के बाद आया है
किसी ने क्यूँ मिरे क़दमों तले बिछाया है
वो रास्ता कि कहीं धूप है न साया है
डगर डगर वही गलियाँ चली हैं साथ मिरे
क़दम क़दम पे तिरा शहर याद आया है
बता रही है ये शिद्दत उजाड़ मौसम की
शगुफ़्त-ए-गुल का ज़माना क़रीब आया है
हवा-ए-शब से कहो आए फिर बुझाने को
चराग़ हम ने सर-ए-शाम फिर जलाया है
कहो ये डूबते तारों से दो घड़ी रुक जाएँ
निशान-ए-गुम-शुदगाँ मुद्दतों में पाया है
बस अब ये प्यास का सहरा उबूर कर जाओ
नदी ने फिर तुम्हें अपनी तरफ़ बुलाया है
फ़ुसून-ए-ख़्वाब-ए-तमाशा कि टूटता जाए
मैं सो रहा था ये किस ने मुझे जगाया है
सुलग उठे हैं शरारे बदन में क्यूँ 'मख़मूर'
ख़ुनुक हवा ने जो बढ़ कर गले लगाया है
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ग़ज़ल
कसक पुराने ज़माने की साथ लाया है
मख़मूर सईदी