करूँ हूँ रात दिन फेरे कई फेरे मियाँ साहिब
कभी तो भी न पाया तुम को हम डेरे मियाँ साहिब
उठावें क्यूँ न नकतोड़े कि हम चाकर हैं उल्फ़त के
वगरना तुम से आलम में हैं बहतेरे मियाँ साहिब
जहाँ के ख़ूबसूरत हम बहुत ताड़ें हैं नज़रों में
तू सब का सब तरह साहिब है ऐ मेरे मियाँ साहिब
यही होती है आशिक़-पर्वरी की शर्त है ज़ालिम
कि हम मरते हैं तुम जाते हो मुँह फेरे मियाँ साहिब
बुरा करते हो जो घर से निकल जाते हो 'हातिम' के
नशे में मस्त उजियाले ओ अँधेरे मियाँ साहिब
ग़ज़ल
करूँ हूँ रात दिन फेरे कई फेरे मियाँ साहिब
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम