करते हैं वही लोग जहाँ ताज़ा-तर आबाद
हर दौर में रखते हैं जो सीना शरर-आबाद
पुर-शोर गुलिस्ताँ हैं न अब दश्त-ओ-दर आबाद
क्या जाने कहाँ हो गए अहल-ए-नज़र आबाद
ठहराव किसी शय के मुक़द्दर में नहीं है
दुनिया है वो जादा जिसे कहिए सफ़र-आबाद
ख़्वाबों के सनम-ख़ाने सलामत हैं तो यूँही
फ़ित्नों से रहेगा ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ओ-कमर आबाद
हमसाएगी-ओ-रब्त की ख़ुशबू भी कहीं है
करती हैं बहारें तो नगर पर नगर आबाद
नग़्मों से जहाँ रौशनी-ए-दर्द थी कल तक
सन्नाटे से है आज वो शाख़-ए-शजर आबाद
'कौसर' है सुख़न-ताब मिरा शहर-ए-तख़य्युल
इस शहर में हैं आज भी आईना-गर आबाद
ग़ज़ल
करते हैं वही लोग जहाँ ताज़ा-तर आबाद
क़ौसर जायसी