करता मैं अब किसी से कोई इल्तिमास क्या
मरने का ग़म नहीं है तो जीने की आस क्या
जब तुझ को मुझ से दूर ही रहना पसंद है
साए की तरह रहता है फिर आस-पास क्या
तुझ से बिछड़ के हम तो यही सोचते रहे
ये गर्दिश-ए-हयात न आएगी रास क्या
अब तर्क-ए-दोस्ती ही तक़ाज़ा है वक़्त का
तेरा क़यास गर है यही तो क़यास क्या
माना कि तेरा मिलना है मुश्किल बहुत मगर
हर लम्हा टूट जाए अब ऐसी भी आस क्या
इक उम्र हो गई है यही सोचते हुए
अपनी किताब-ए-ज़ीस्त का है इक़्तिबास क्या
'नादिर' कहीं तो सैर को बाहर भी जाइए
हर-दम किसी की याद में रहना उदास क्या
ग़ज़ल
करता मैं अब किसी से कोई इल्तिमास क्या
अतहर नादिर