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करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत | शाही शायरी
karta hai bagh-e-dahr mein nairangiyan basant

ग़ज़ल

करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत

मुनीर शिकोहाबादी

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करता है बाग़-ए-दहर में नैरंगियाँ बसंत
आया है लाख रंग से ऐ बाग़बाँ बसंत

हम-रंग की है दून निकल अशरफ़ी के साथ
पाता है आ के रंग-ए-तलाई यहाँ बसंत

जोबन पर इन दिनों है बहार-ए-नशात-ए-बाग़
लेता है फूल भर के यहाँ झोलियाँ बसंत

मूबाफ़ ज़र्द रंग है सुम्बुल की चोट में
खोता है बू-ए-गुल की परेशानियाँ बसंत

नव्वाब-ए-नाम-दार 'ज़फ़र-जंग' के हुज़ूर
गाती है आ के ज़ोहरा-ए-गर्दूं-मकाँ बसंत

जाम-ए-अक़ीक़ ज़र्द है नर्गिस के हाथ में
तक़्सीम कर रहा है मय-ए-अर्ग़वाँ बसंत

होते हैं ताइरान-ए-चमन नर्गिसी कबाब
कह दो कि इस क़दर न करे गर्मियाँ बसंत

चेहरे तमाम ज़र्द हैं दौलत के रंग से
कोठी में हो गया है सरापा अयाँ बसंत

नीला हुआ है मुँह गुल-ए-सौसन का बाग़ में
लेता है इख़्तिलात में क्या चुटकियाँ बसंत

कड़वे धरे हुए हैं जो नव्वाब के हुज़ूर
बाहर है अपने जामे से ऐ बाग़बाँ बसंत

पुखराज के गिलासों में है लाला-गूँ शराब
सोने का पानी पी के है रतब-उल-लिसाँ बसंत

सरसों जो फूली दीदा-ए-जाम-ए-शराब में
बिंत-उल-अनब से करने लगा शोख़ियाँ बसंत

ज़ेर-ए-क़दम है फ़र्श-ए-बसंती हुज़ूर के
मसरूफ़ पा-ए-बोस में है हर ज़माँ बसंत

मैं गर्द-पोश हो के बना शाख़-ए-ज़ाफ़राँ
लिपटा हुआ है मेरे बदन से यहाँ बसंत

करता हूँ अब तमाम दुआ पर ये चंद शेर
आया पसंद मजमा-ए-अहल-ए-ज़माँ बसंत

जब तक कि महव-ए-क़हक़हा हूँ गुल हज़ार में
रंगीन तार है सिफ़त-ए-ज़ाफ़राँ बसंत

यारब हज़ार साल सलामत रहें हुज़ूर
हो रोज़ जश्न-ए-ईद यहाँ जावेदाँ बसंत

अहबाब सुर्ख़-रू रहें दुश्मन हों ज़र्द-रू
जब तक मनाएँ मर्दुम-ए-हिन्दोस्ताँ बसंत

ज़र्दी की तरह बैज़ा-ए-बुलबुल में छुप रहे
इस बाग़ से न जाए मियान-ए-ख़िज़ाँ बसंत

तक़दीर में थी फ़ुर्क़त-ए-यारान-ए-लखनऊ
इस शहर में 'मुनीर' कहाँ था कहाँ बसंत