करनी नहीं है दुनिया में इक दुश्मनी मुझे
कहते हैं सारे लोग कभी आदमी मुझे
जाती है गर तो जाएँ ये दुनिया की दौलतें
बस राम आई है तो फ़क़त सादगी मुझे
नज़रें झुकाए बैठे रहे वो भी शर्म से
रातों को फिर सताती रही अन-कही मुझे
सारे चराग़ छोड़ के मंज़िल पे बढ़ चला
रस्ता दिखा रही है अभी तीरगी मुझे
ज़िंदा बचा तो मौत को जाना क़रीब से
क्या क्या हुनर सिखाए मेरी ज़िंदगी मुझे
मरने चला तो मय-कदा रास्ते में मिल गया
मरने से फिर बचाती रही मय-कशी मुझे
ग़ैरों को चाह कर के भी अपना नहीं किया
अपनों से ही मिली थी ये बेगानगी मुझे

ग़ज़ल
करनी नहीं है दुनिया में इक दुश्मनी मुझे
संजीव आर्या