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करना है कार-ए-ख़ैर तो फिर सर न देखना | शाही शायरी
karna hai kar-e-KHair to phir sar na dekhna

ग़ज़ल

करना है कार-ए-ख़ैर तो फिर सर न देखना

विश्मा ख़ान विश्मा

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करना है कार-ए-ख़ैर तो फिर सर न देखना
बरसें जो तेरी ज़ात पे पत्थर न देखना

लगने लगेंगे दोस्त भी दुश्मन सभी तुम्हें
यानी है किस के हाथ में ख़ंजर न देखना

रखना हक़ीक़तें भी निगाहों के सामने
दिन रात सिर्फ़ ख़्वाब का मंज़र न देखना

रह जाए रंग-ओ-बू से तअल्लुक़ तिरा अगर
फूलों को अपने हाथ से छू कर न देखना

जाना अगर है पार तो हो कर सवार तुम
कश्ती के साथ साथ समुंदर न देखना

ख़ुद करना ज़िंदगी से वफ़ाओं का फ़ैसला
क्या कह रहा है तुम से मुक़द्दर न देखना

मसरूफ़ अपनी जंग में रहना सदा मगर
नज़रें उठा के तुम कभी ऊपर न देखना