करिश्मा-साज़-ए-अज़ल क्या तिलिस्म बाँधा है
परीदा रंग है हर नक़्श फिर भी प्यारा है
तू रू-ब-रू हो तो ऐ रू-ए-यार तुझ से कहें
वो हर्फ़-ए-ग़म कि हरीफ़-ए-ग़म-ए-ज़माना है
कभी तो हम पे उठे चश्म-ए-आश्ना की तरह
वो इक निगाह कि सद-गर्दिश-ए-ज़माना है
हमारी आँखों से नैरंगी-ए-जहाँ देखो
हमारी आँखों में इक उम्र-ए-सद-तमाशा है
हवा-ए-शौक़ वो दिन किस ख़िज़ाँ के साथ गए
तमाम उम्र हुई इंतिज़ार-ए-फ़र्दा है
ग़ज़ल
करिश्मा-साज़-ए-अज़ल क्या तिलिस्म बाँधा है
महमूद अयाज़