करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
इलाही इतना भी उस शख़्स को हिजाब न दे
तमाम शहर के चेहरों को पढ़ने निकला हूँ
ऐ मेरे दोस्त मिरे हाथ में किताब न दे
ग़ज़ल के नाम को बदनाम कर दिया उस ने
कुछ और दे मिरे साक़ी मुझे शराब न दे
मैं तुझ को देख के तेरे भरम को जान सुकूँ
इक आदमी हूँ ज़रा सोच ऐसी ताब न दे
वो मिल न पाए अगर मुझ को इस ज़माने में
तो ऐसी हूर का दुनिया में कोई ख़्वाब न दे
ये मेरे फ़न की तलब है कि दिल की बात कहूँ
वो 'अश्क' दे कि ज़माने को इंक़िलाब न दे
ग़ज़ल
करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
इब्राहीम अश्क