कर्ब चेहरे से मह-ओ-साल का धोया जाए
आज फ़ुर्सत से कहीं बैठ के रोया जाए
फिर किसी नज़्म की तम्हीद उठाई जाए
फिर किसी जिस्म को लफ़्ज़ों में समोया जाए
कुछ तो हो रात की सरहद में उतरने की सज़ा
गर्म सूरज को समुंदर में डुबोया जाए
बज गए रात के दो अब तो वो आने से रहे
आज अपना ही बदन ओढ़ के सोया जाए
नर्म धागे को मसलता है कोई चुटकी में
सख़्त हो जाए तो मोती में पिरोया जाए
इतनी जल्दी तो बदलते नहीं होंगे चेहरे
गर्द-आलूद है आईने को धोया जाए
मौत से ख़ौफ़-ज़दा जीने से बे-ज़ार हैं लोग
इस अलमिये पे हँसा जाए कि रोया जाए
ग़ज़ल
कर्ब चेहरे से मह-ओ-साल का धोया जाए
शाहिद कबीर