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कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या | शाही शायरी
kar apni baat ki pyare kisi ki baat se kya

ग़ज़ल

कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या

उमर अंसारी

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कर अपनी बात कि प्यारे किसी की बात से क्या
लिया है काम बता तू ने इस हयात से क्या

यहाँ तो जो भी है राही है बंद गलियों का
निकल के देखा है किस ने हिसार-ए-ज़ात से क्या

थी बंद बंद बहुत गुफ़्तुगू-ए-यार मगर
खुले हैं उक़्दा-ए-दिल उस की बात बात से क्या

वो चुप लगी है कि हँसता है और न रोता है
ये हो गया है ख़ुदा जाने दिल को रात से क्या

ये राज़-ए-दैर-ओ-हरम है किसी को क्या मालूम
कहानियों को इलाक़ा है वाक़िआत से क्या

शिकस्त का तो किसी को जहाँ गुमाँ भी न था
निकल गए हैं वो मैदाँ हमारे हात से क्या

हैं रोज़-ए-अब्र के मुश्ताक़-ए-दीद तो लाखों
लिया है किस ने मगर अब्र के सिफ़ात से क्या

हर इक तो अपनी ग़रज़ ले के हम से मिलता है
उठाएँ फ़ाएदा किस के तअल्लुक़ात से क्या

कोई तो मक़्सद-ए-शेर-ओ-अदब भी होगा 'उमर'
न हों जो काम की ऐसी निगारशात से क्या