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कमरों में छुपने के दिन हैं और न बरहना रातें हैं | शाही शायरी
kamron mein chhupne ke din hain aur na barahana raaten hain

ग़ज़ल

कमरों में छुपने के दिन हैं और न बरहना रातें हैं

शहज़ाद अहमद

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कमरों में छुपने के दिन हैं और न बरहना रातें हैं
अब आपस में करने वाली और बहुत सी बातें हैं

लज़्ज़त और यकताई का इक झोंका आया बीत गया
फिर से अपने अपने दुख हैं अपनी अपनी ज़ातें हैं

क़ुर्बत की लज़्ज़त जैसे बारिश में पत्थर रक्खा हो
अंदर सहरा जैसा मौसम और बाहर बरसातें हैं

मोम सा नाज़ुक पैकर उस का हाथ लगे और घुल जाए
मेरे जिस्म में जलने वाली ख़्वाहिश की सौग़ातें हैं

आज मिले तो यूँ लगता है आज के बाद नहीं मिलना
साँस भी लेने की नहीं फ़ुर्सत उखड़ी उखड़ी बातें हैं

आख़िर कोई पढ़ ही लेगा रुस्वाई की तहरीरें
ये मेरे चेहरे की लकीरें कुछ जीतें कुछ मातें हैं

अब जिन को तख़्लीक़ के फ़न का दावा है 'शहज़ाद' बहुत
टूटे हुए क़लम हैं उन के सूखी हुई दवातें हैं