EN اردو
कमरे में धुआँ दर्द की पहचान बना था | शाही शायरी
kamre mein dhuan dard ki pahchan bana tha

ग़ज़ल

कमरे में धुआँ दर्द की पहचान बना था

अबरार आज़मी

;

कमरे में धुआँ दर्द की पहचान बना था
कल रात कोई फिर मिरा मेहमान बना था

बिस्तर में चली आएँ मचलती हुई किरनें
आग़ोश में तकिया था सो अंजान बना था

वो मैं था मिरा साया था या साए का साया
आईना मुक़ाबिल था मैं हैरान बना था

नज़रों से चुराता रहा जिस्मों की हलावत
सुनते हैं कोई साहिब-ए-ईमान बना था

नद्दी में छुपा चाँद था साहिल पे ख़मोशी
हर रंग लहू-रंग का ज़िंदान बना था

हर्फ़ों का बना था कि मआनी का ख़ज़ीना
हर शेर मिरा बहस का उनवान बना था