कमी ज़रा सी अगर फ़ासले में आ जाए
वो शख़्स फिर से मिरे राब्ते में आ जाए
उसे कुरेद रहा हूँ तरह तरह से कि वो
जिहत जिहत से मिरे जाएज़े में आ जाए
कमाल जब है कि सँवरे वो अपने दर्पन में
और उस का अक्स मिरे आईने में आ जाए
किया है तर्क-ए-तअल्लुक़ तो मुड़ के देखना क्या
कहीं न फ़र्क़ तिरे फ़ैसले में आ जाए
दिमाग़ अहल-ए-मोहब्बत का साथ देता नहीं
उसे कहो कि वो दिल के कहे में आ जाए
वो मेरी राह में आँखें बिछाए बैठा हो
ये वाक़िआ भी कभी देखने में आ जाए
वो माहताब-ए-ज़माना है लोग कहते हैं
तो उस का नूर मिरे शब-कदे में आ जाए
बस इक 'फ़राग़' बचा है जुनूँ-पसंद यहाँ
कहो कि वो भी मिरे क़ाफ़िले में आ जाए
ग़ज़ल
कमी ज़रा सी अगर फ़ासले में आ जाए
फ़राग़ रोहवी