कम्बख़्त दिल ने इश्क़ को वहशत बना दिया
वहशत को हम ने बाइस-ए-रहमत बना दिया
क्या क्या मुग़ालते दिए दौर-ए-जदीद ने
नफ़रत को प्यार प्यार को नफ़रत बना दिया
हम ने हज़ार फ़ासले जी कर तमाम शब
इक मुख़्तसर सी रात को मुद्दत बना दिया
ऐ जान अपने दिल पे मुझे नाज़ क्यूँ न हो
इक ख़्वाब था कि जिस को हक़ीक़त बना दिया
मख़्सूस हद पे आ गई जब बे-रुख़ी तिरी
उस हद को हम ने हासिल-ए-क़िस्मत बना दिया
ग़ज़ल
कम्बख़्त दिल ने इश्क़ को वहशत बना दिया
अमीता परसुराम 'मीता'