कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है
सजन के हुस्न कूँ टुक फ़िक्र सूँ देख
कि ये आईना-ए-मअ'नी-नुमा है
ये ख़त है जौहर-ए-आईना-राज़
इसे मुश्क-ए-ख़ुतन कहना बजा है
हुआ मालूम तुझ ज़ुल्फ़ाँ सूँ ऐ शोख़
कि शाह-ए-हुस्न पर ज़िल्ल-ए-हुमा है
न होवे कोहकन क्यूँ आ के आशिक़
जो वो शीरीं-अदा गुलगूँ-क़बा है
न पूछो आह-ओ-ज़ारी की हक़ीक़त
अज़ीज़ाँ आशिक़ी का मुक़तज़ा है
'वली' कूँ मत मलामत कर ऐ वाइज़
मलामत आशिक़ों पर कब रवा है
ग़ज़ल
कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
वली मोहम्मद वली