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कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है | शाही शायरी
kamar us dilruba ki dilruba hai

ग़ज़ल

कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है

वली मोहम्मद वली

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कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है

सजन के हुस्न कूँ टुक फ़िक्र सूँ देख
कि ये आईना-ए-मअ'नी-नुमा है

ये ख़त है जौहर-ए-आईना-राज़
इसे मुश्क-ए-ख़ुतन कहना बजा है

हुआ मालूम तुझ ज़ुल्फ़ाँ सूँ ऐ शोख़
कि शाह-ए-हुस्न पर ज़िल्ल-ए-हुमा है

न होवे कोहकन क्यूँ आ के आशिक़
जो वो शीरीं-अदा गुलगूँ-क़बा है

न पूछो आह-ओ-ज़ारी की हक़ीक़त
अज़ीज़ाँ आशिक़ी का मुक़तज़ा है

'वली' कूँ मत मलामत कर ऐ वाइज़
मलामत आशिक़ों पर कब रवा है