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कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने | शाही शायरी
kamand-e-halqa-e-guftar toD di maine

ग़ज़ल

कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने

तनवीर अहमद अल्वी

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कमंद-ए-हल्क़ा-ए-गुफ़तार तोड़ दी मैं ने
कि मोहर-ए-दस्त-ए-क़लमकार तोड़ दी मैं ने

रिवायतों को सलीबों से कर दिया आज़ाद
यही रसन तो सर-ए-दार तोड़ दी मैं ने

ये मेरे हाथ हैं और बे-शनाख़्त अब भी नहीं
ये और बात है तलवार तोड़ दी मैं ने

सफ़ीने ही को मैं शोला दिखा के निकला था
जो अपने हाथ से पतवार तोड़ दी मैं ने

तहक्कुमाना अदा और फ़ैसले दिल के
कमान-ए-अब्रू-ए-ख़म-दार तोड़ दी मैं ने

गिरह गिरह जो कहीं और रिश्ता रिश्ता कहीं
ये रस्म-ए-सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार तोड़ दी मैं ने

वो दाएरों से जो बाहर न आ सके 'तनवीर'
वो रस्म-ए-गर्दिश-ए-परकार तोड़ दी मैं ने