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कमाँ उठाओ कि हैं सामने निशाने बहुत | शाही शायरी
kaman uThao ki hain samne nishane bahut

ग़ज़ल

कमाँ उठाओ कि हैं सामने निशाने बहुत

हसन अज़ीज़

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कमाँ उठाओ कि हैं सामने निशाने बहुत
अभी तो ख़ाली पड़े हैं लहू के ख़ाने बहुत

वो धूप थी कि हुई जा रही थी जिस्म के पार
अगरचे हम ने घने साए सर पे ताने बहुत

अभी कुछ और का एहसास फिर भी ज़िंदा है
नवाह-ए-जिस्म के असरार हम ने जाने बहुत

ज़ियादा कुछ भी नहीं एक मुश्त-ए-ख़ाक से मैं
ज़रा सी चीज़ को फैला दिया हवा ने बहुत

लगा हुआ हूँ उधर वक़्त को समेटने में
फिसल रहे हैं इधर हाथ से ज़माने बहुत

सफ़र क़याम से बेहतर नहीं रहा अब के
कि जा-ब-जा थे मिरी राह में ठिकाने बहुत

बड़ी अजीब थी पिछली ख़मोश रात 'हसन'
मुझे रुलाया किसी दौर की सदा ने बहुत