कमाँ पे चढ़ के ब-शक्ल-ए-ख़दंग होना पड़ा
हरीफ़-ए-अम्न से मसरूफ़-ए-जंग होना पड़ा
यहाँ थी दुश्मनी इंसाँ से प्यार पत्थर से
मुझे भी आख़िरश इक रोज़ संग होना पड़ा
हसद की आग में जल जल के लोग मरने लगे
मुझे समेट के वुसअ'त को तंग होना पड़ा
रहा जो बर-सर-ए-पैकार में मुक़द्दर से
तो उस हरीफ़ को हैरान-ओ-दंग होना पड़ा
ज़माना रोज़ मिरा ज़ब्त आज़माता था
मरे मिज़ाज को यूँ शोला-रंग होना पड़ा
बहुत ग़ुरूर था पैराक होने का जिन को
उन्हें 'ज़मीर' शिकार-ए-नहंग होना पड़ा
ग़ज़ल
कमाँ पे चढ़ के ब-शक्ल-ए-ख़दंग होना पड़ा
ज़मीर अतरौलवी