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कमाल-ए-इलम ओ तहक़ीक़-ए-मुकम्मल का ये हासिल है | शाही शायरी
kamal-e-ilm o tahqiq-e-mukammal ka ye hasil hai

ग़ज़ल

कमाल-ए-इलम ओ तहक़ीक़-ए-मुकम्मल का ये हासिल है

सीमाब अकबराबादी

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कमाल-ए-इलम ओ तहक़ीक़-ए-मुकम्मल का ये हासिल है
तिरा इदराक मुश्किल था तिरा इदराक मुश्किल है

ये वीरानी तसव्वुर की वो रंगीनी ख़यालों की
कभी महफ़िल में ख़ल्वत है कभी ख़ल्वत में महफ़िल है

वो आईना हो या हो फूल तारा हो कि पैमाना
कहीं जो कुछ भी टूटा मैं यही समझा मिरा दिल है

उजाला हो तो ढूँडूँ दिल भी परवानों की लाशों में
मिरी बर्बादियों को इंतिज़ार-ए-सुब्ह-ए-महफ़िल है

वो दिल ले कर हमें बे-दिल न समझें उन से कह देना
जो हैं मारे हुए नज़रों के उन की हर नज़र दिल है

वो ऐ 'सीमाब' क्यूँ सरगश्ता-ए-तसनीम-ओ-जन्नत हो
मयस्सर जिस को सैर-ए-ताज है जमुना का साहिल है