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कमाल-ए-हुस्न का जब भी ख़याल आया है | शाही शायरी
kamal-e-husn ka jab bhi KHayal aaya hai

ग़ज़ल

कमाल-ए-हुस्न का जब भी ख़याल आया है

अज़ीज़ साबरी

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कमाल-ए-हुस्न का जब भी ख़याल आया है
मिसाल-ए-शे'र तिरा नाम दिल पे उतरा है

मैं अपने आप को देखूँ तो किस तरह देखूँ
कि मेरे गिर्द मिरी ज़ात ही का पर्दा है

मैं फ़लसफ़ी न पयम्बर कि राह बतलाऊँ
हर एक शख़्स मुझी से सवाल करता है

ये सच है मैं भी तग़य्युर की ज़द से बच न सका
सवाल ये है कि तू भी तो कितना बदला है

तिरे ख़ुलूस की चादर सिमट गई शायद
मिरा वजूद मुझे अजनबी सा लगता है

अभी तो हालत-ए-दिल का सुधार है मुश्किल
अभी तो तेरी जुदाई का ज़ख़्म ताज़ा है

'अज़ीज़' अपने तज़ादात ही मिटा डालो
ये कौन पूछ रहा है ज़माना कैसा है