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कमाल-ए-हुस्न है हुस्न-ए-कमाल से बाहर | शाही शायरी
kamal-e-husn hai husn-e-kamal se bahar

ग़ज़ल

कमाल-ए-हुस्न है हुस्न-ए-कमाल से बाहर

अमजद इस्लाम अमजद

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कमाल-ए-हुस्न है हुस्न-ए-कमाल से बाहर
अज़ल का रंग है जैसे मिसाल से बाहर

तो फिर वो कौन है जो मावरा है हर शय से
नहीं है कुछ भी यहाँ गर ख़याल से बाहर

ये काएनात सरापा जवाब है जिस का
वो इक सवाल है फिर भी सवाल से बाहर

है याद अहल-ए-वतन यूँ कि रेग-ए-साहिल पर
गिरी हुई कोई मछली हो जाल से बाहर

अजीब सिलसिला-ए-रंग है तमन्ना भी
हद-ए-उरूज से आगे ज़वाल है बाहर

न उस का अंत है कोई न इस्तिआ'रा है
ये दास्तान है हिज्र-ओ-विसाल से बाहर

दुआ बुज़ुर्गों की रखती है ज़ख़्म उल्फ़त को
किसी इलाज किसी इंदिमाल से बाहर

बयाँ हो किस तरह वो कैफ़ियत कि है 'अमजद'
मिरी तलब से फ़रावाँ मजाल से बाहर