कमाल-ए-आदमी की इंतिहा है
वो आइंदा में भी सब से बड़ा है
कोई रफ़्तार होगी रौशनी की
मगर वो उस से भी आगे गया है
जहाँ बैठे सदा-ए-ग़ैब आई
ये साया भी उसी दीवार का है
मुजस्सम हो गए सब ख़्वाब मेरे
मुझे मेरा ख़ज़ाना मिल गया है
हक़ीक़त एक है लज़्ज़त में लेकिन
हिकायत सिलसिला-दर-सिलसिला है
यूँही हैराँ नहीं हैं आँख वाले
कहीं इक आइना रक्खा हुआ है
विसाल-ए-यार से पहले मोहब्बत
ख़ुद अपनी ज़ात का इक रास्ता है
सलामत आइने में एक चेहरा
शिकस्ता हो तो कितना देखता है
ग़ज़ल
कमाल-ए-आदमी की इंतिहा है
उबैदुल्लाह अलीम