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कम-ज़र्फ़ भी है पी के बहकता भी बहुत है | शाही शायरी
kam-zarf bhi hai pi ke bahakta bhi bahut hai

ग़ज़ल

कम-ज़र्फ़ भी है पी के बहकता भी बहुत है

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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कम-ज़र्फ़ भी है पी के बहकता भी बहुत है
भरता भी नहीं और छलकता भी बहुत है

अल्लाह की मर्ज़ी का तो सख़्ती से है पाबंद
हाकिम की रज़ा हो तो लचकता भी बहुत है

कोताह-कदी कहती है खट्टे हैं ये अंगूर
लेकिन गह-ओ-बे-गाह लपकता भी बहुत है

पर्वा है न कुछ ताल की ने सुर की ख़बर है
पर साज़ पे दुनिया के मटकता भी बहुत है

शोरीदगी बढ़ती है दर-ए-लैली-ए-ज़र पर
दीवार पे ये सर को पटकता भी बहुत है

महफ़िल में तो सुनिए हवस-ए-जाह पे तक़रीर
पहलू में यही ख़ार खटकता भी बहुत है

'बाक़र' जो भटकता है मआ'नी के सफ़र में
हो सूरत-ए-ज़ेबा तो अटकता भी बहुत है