कली पे रंग गुलों पर निखार भी तो नहीं
बहार ख़ाक उमीद-ए-बहार भी तो नहीं
कुछ ऐसी आग लगी है मिरे गुलिस्ताँ में
यहाँ शजर कोई बे-बर्ग-ओ-बार भी तो नहीं
इसी फ़रेब में रहता कि पास है मंज़िल
सितम तो ये है कि रह में ग़ुबार भी तो नहीं
मुझे ज़माने ने बख़्शी है वो फ़रेब की मय
नशा तो एक तरफ़ है ख़ुमार भी तो नहीं
समझ में आती नहीं सर्द-मेहरी-ए-दुनिया
किसी के सीने में ग़म का शरार भी तो नहीं
क़रार दिल के लिए ढूँढता मगर तौबा
तिरे बग़ैर ये अब बे-क़रार भी तो नहीं
निकल तो जाओ जहान-ए-ख़राब से ऐ 'अर्श'
मगर यहाँ कोई जा-ए-फ़रार भी तो नहीं
ग़ज़ल
कली पे रंग गुलों पर निखार भी तो नहीं
अर्श मलसियानी