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कली कली के बजा राज़दार हैं हम लोग | शाही शायरी
kali kali ke baja raazdar hain hum log

ग़ज़ल

कली कली के बजा राज़दार हैं हम लोग

ख़िज़्र बर्नी

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कली कली के बजा राज़दार हैं हम लोग
चमन को फ़ख़्र है जिन पर वो ख़ार हैं हम लोग

लहू से अपने गुलिस्ताँ को सब्ज़ा-ज़ार किया
बहुत ख़ुलूस के आईना-दार हैं हम लोग

हक़ीर जान के ठुकरा रहे हैं अहल-ए-चमन
चमन में अपनी जगह ख़ुद बहार हैं हम लोग

कुछ ऐसा गर्दिश-ए-दौराँ का देखते हैं फ़ुसूँ
कि आज अहल-ए-गुलिस्ताँ पे बार हैं हम लोग

सितम ये है कि ज़माने का ग़म उठाने पर
क़रार पाते नहीं बे-क़रार हैं हम लोग

यही है दावत-ए-ऐश-ओ-निशात रोज़-ओ-शब
ख़ुशी का ज़िक्र नहीं अश्क-बार हैं हम लोग

हमारे अहद-ए-गुज़िश्ता की देखिए तारीख़
ख़ुद अपनी शान में ज़ी-इफ़्तिख़ार हैं हम लोग

क़दम क़दम पे मसाइब उठा रहे हैं 'ख़िज़्र'
ख़ुदा-गवाह कि फिर ग़म-गुसार हैं हम लोग