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कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है | शाही शायरी
kali kali ka badan phoD kar jo nikla hai

ग़ज़ल

कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है

फ़ज़्ल ताबिश

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कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है
वो ज़िंदगी का नहीं मौत का तक़ाज़ा है

हर एक झूटा पयम्बर है ये भी ठीक नहीं
कहीं कहीं तो मगर सब के साथ घपला है

मैं उस का बर्फ़ बदन रौंध कर पशेमाँ हूँ
मगर जो दूर खड़े हैं उन्हें वो शो'ला है

जो थूकता है हर एक चीज़ को अँधेरे से
कभी कभी वही दिन मुझ में डूब जाता है

हर एक सम्त ग़लाज़त भरे समुंदर हैं
मगर ये मैं ने किनारे खड़े ही समझा है