कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
हुआ क्या जान को मेरी अभी तो थी भली-चंगी
ज़क़न की चाह में ये सब्ज़ी-ए-ख़त ज़हर-ए-क़ातिल है
परी है भाँग कूए में न हो क्यूँ ख़ल्क़ चित-भंगी
जहाँ की तरह सौ सौ रंग पल पल में बदलता है
कभू कुछ है कभू कुछ है कभू कुछ है वो बहू-रंगी
तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी
ग़रीबों का ख़ुदा-हाफ़िज़ है 'हातिम' देखिए क्या हो
कि वो है चूर कैफ़ी हाथ में शमशीर है नंगी
ग़ज़ल
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम